International Journal For Multidisciplinary Research

E-ISSN: 2582-2160     Impact Factor: 9.24

A Widely Indexed Open Access Peer Reviewed Multidisciplinary Bi-monthly Scholarly International Journal

Call for Paper Volume 6 Issue 3 May-June 2024 Submit your research before last 3 days of June to publish your research paper in the issue of May-June.

मानव जीवन में पुरुषार्थ चतुष्ट्य और धर्म

Author(s) अन्नपूर्णानन्द शर्मा
Country india
Abstract मनुष्य कर्मशील चेतनासम्पन्न प्राणी है। वह अपने समस्त ऐहिक एवं पारलौकिक कार्यो के प्रति सदैव से जाग्रत रहा है। उसे शास्त्रीय परम्परा में ऐसे निर्देश प्राप्त हुए है जिसके माध्यम से वह सांसारिक कार्यो को करते हुए मानव जीवन के मूल उद्देश्य परम तत्त्व की प्राप्ति कर सकता है। वह अपने कर्तव्यों और लक्ष्यों का निर्धारण करते हुए अपने जीवन में सुख, शांति, वैभव, और आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति सुगमता से कर सकता है। ये शास्त्रीय निर्देश भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्ट्य के नाम से जाने जाते हैं। वैदिक साहित्य में कहा गया है कि मानव-जीवन की सम्पूर्ण इच्छाओं की प्राप्ति पुरुषार्थ पर ही आधारित है, इसीलिए उसको अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए कर्म करना नितान्त आवश्यक माना गया है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ये चारों भारतीय संस्कृति के मूल स्तम्भ हैं। जिसमें मनुष्य पुरुषार्थ रूपी मूल्यों के द्वारा अपनी जीवन-यात्रा को पूर्ण करता है। हमारी भारतीय संस्कृति मूल्यपरक होने के कारण समग्र विश्व के लिए प्रेरणा-स्रोत रही है। पुरुषार्थ उसी की विशेषता है। पुरुषार्थ दो शब्दों पुरुष और अर्थ का संयोग है। शरीर में निवास करने वाले जीवात्मा को पुरुष कहा जाता है, और उसके अभीष्ट लक्ष्य को पुरुषार्थ की संज्ञा से अभिहित किया गया है। पुरि देहे शेते इति पुरुषः पुरुषैरर्थ्यते प्रार्थ्यते इति पुरुषार्थः1 यहाँ पुरुष वाचक शब्द का प्रयोग दो अर्थो में किया जा सकता है। पहला अर्थ परमपुरुष अर्थात् आदि पुरुष के रूप में है, जिसको ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में इस प्रकार कहा गया है-
पुरुष एवेद सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् । 2
अर्थात् यह सब जो हो गया है और जो होगा वह पुरुष (परमात्मा) के द्वारा ही है। दूसरा अर्थ जीवात्मा रूपी पुरुष (मनुष्य) से है। पुरुषार्थ में इस प्रकार की अवधारणा है कि जीवरूपी पुरुष अपने सम्पूर्ण जीवन को सद्कर्मांे के माध्यम से व्यतीत करता है, जिसमें वह चारों पुरुषार्थों से सम्बद्ध मूल्यों का सुनियोजित ढंग से समन्वय करता हुआ, परमपद अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि दोनों पुरुष का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है।

पुरुषार्थ चतुष्ट्य की संकल्पना की आवश्यकता क्यों?

धर्म, अर्थ एवं काम ये त्रिवर्ग मानव जीवन के लिए साधन है एवं मोक्ष परम साध्य के रूप में विद्यमान है। मनुष्य सदैव कर्म के प्रति प्रयत्नशील रहता है, क्योंकि उसका त्रिवर्गरूपी साधन उसको उच्चतम मूल्यों के सोपान तक पहुँचाकर परमपद की प्राप्ति करा सकता है। उन मूल्यों का उद्गम स्थल वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराणादि को माना जाता है। उसमें विविध प्रकार के मूल्यों की भावना निहित है। ऋग्वेद में कहा गया है कि - पुरुषार्थी पुरुष निरन्तर चेष्टा करता है। 3 इस प्रकार जिज्ञासा एवं इच्छा के उत्पन्न होने और उसको पूर्ण करने में मनुष्य को कर्म की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा माना जा सकता है कि प्राचीनकाल में उस कर्म को पुरुषार्थ कहा जाता रहा है। भारतीय मूल्य परम्परा में यह पुरुषार्थ एक आदर्श मूल्य भी माना गया है।4 कर्म की पवित्रता ही मनुष्य के अन्तःकरण को सन्तुष्टि प्रदान कर सकती है। क्योंकि हमारे कर्मो का प्रतिबिम्ब ही हमारी चेतना का निर्माण करता है इसलिए हमें कर्म की पवित्रता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। वैदिक साहित्य में कर्मठ व्यक्ति की प्रशंसा की गई है एवं सभी प्राणियों को प्रेरित किया गया है कि वे निरन्तर कर्म के प्रति आग्रह या जिज्ञासा रखें- अथातः क्रत्वर्थपुरुषार्थयोर्जिज्ञासा 5 (व्यक्ति को कर्मप्रधान पुरुषार्थ की जिज्ञासा करनी चाहिए)।
पुरुषार्थ का क्षेत्र अतिविस्तृत एवं व्यापक है। इसका जितना प्रभाव वैदिक साहित्य में है, उतना ही लौकिक साहित्य में भी मिलता है। लौकिक साहित्य में आदिकाव्य रामायण में पुरुषार्थ को महान फल प्रदान करने वाला बताया है।6 महर्षि वाल्मीकि कहते हैं कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ के साधन है एवं महान फल देने वाले है। इसी कथन की पुष्टि महाभारत भी करता है। इसमें कहा गया है, कि मनुष्य स्वयं कर्म करके जो कुछ फल प्राप्त करता है उसे पुरुषार्थ कहते हैं। 7 वामन पुराण में पुरुषार्थचतुष्ट्य से मनुष्य का पूर्ण विकास माना गया है। जिसकी उत्पत्ति सदाचाररूपी वृक्ष से मानी गयी है। धर्म को उसकी जड़, अर्थ को शाखा, कामना को पुष्प और मोक्ष को उसका फल माना गया है। 8 वहाँ अग्निपुराणकार ने त्रिवर्ग को वृक्ष के तुल्य मानते हुए कहा है कि - धर्ममूलोऽर्थविटपस्तथा कर्मफलो महान्। 9 अर्थात् धर्म उसकी जड़ है अर्थ उसकी शाखाएँ हैं एवं काम उसका फल है। आचार्य मनु ने भी त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) को कल्याण रूप श्रेयस्कर बताया है। 10 मनुष्य के जीवन के विविध पक्षों का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए हमारे मनीषियों ने तो पुरुषार्थ के चारों सोपानों पर पृथक पृथक ग्रंथों का प्रणयन तक किया है। धर्मरूपी पुरुषार्थ को आधार बनाकर आचार्य मनु ने मनुस्मृति, अर्थ की प्रधानता पर आधारित कौटिल्य ने अर्थशास्त्र, कामरूपी पुरुषार्थ को आधार मानकर वात्स्यायन ने कामसूत्र और आचार्य कपिलादि ने (दर्शनादि) मोक्ष पर आधारित सांख्यदर्शन ग्रन्थों का प्रणयन किया।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि पुरूषार्थ का इतना विवेचन का कारण क्या है? उत्तर यह है कि आज मनुष्य का जीवन इतना जटिल हो चुका है कि उसे क्या करने योग्य है और क्या नहीं, इसका ज्ञान भी नहीं है। वह अपने स्व की कोटर में निरन्तर सीमित होता जा रहा है। स्थिति इतनी विकट है कि अब तो मोबाइल ही उसका जीवन हो गया है। मनुष्य जीवन के लक्ष्य को विस्मृत कर दिया गया है। वह केवल भोगयोनि का प्राणी बनकर रह गया है। उसे अपने मानव जीवन के कल्याणकारी साहित्यों के नाम तक स्मरण नहीं है। ऐसे में वह अपने जीवन की पूर्णता और परम लक्ष्य की प्राप्ति से वंचित होकर दुखी होता है। इस त्रिवर्ग की महत्ता इस तथ्य से भी प्रमाणित हो जाती है कि संस्कृत के काव्यशास्त्रियों ने भी चारों पुरुषार्थो को अपने काव्य के प्रयोजन के रूप में वर्णित किया है। 11
इस विवेचनोपरांत यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि पुरुषार्थ चतुष्ट्य मानव जीवन के आधार स्तम्भ हैं। यह व्यक्ति और समाज की परस्परता के पूरक हैं। मानव के मनोविज्ञान को दृष्टिगत रखते हुए वैदिक साहित्य को निर्मित किया गया था। जिससे मनुष्य अपना कल्याण कर सके। कालांतर में इस ज्ञान को कल्पना प्रसूत कहकर विस्मृत कर दिया गया। आज का परिवेश हमारे समक्ष है। मानव का जीवन अत्यंत कठिन है। जीवन के उन पक्षों के प्रति उसका चिन्तन है जो स्थायी नहीं है। अहंकार, क्रोध, काम, छल, अधर्म, लोभ, मोह आदि विकारों से आवृत्त होकर वह केवल स्वयं की सत्ता की स्थापना करना चाहता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह जैसे शब्दों से वह अपरिचित होता जा रहा है। उपर्युक्त ग्रन्थों की महत्ता इस बात से लक्षित की जा सकती है कि हमे वास्तविक लक्ष्य पुरुषार्थ को जीवन का आधार बनाना चाहिए। हमें कर्मो की गुणवत्ता का ऐसा निर्धारण करना चाहिए जिससे भाग्य का निर्माण सम्यक्रूप से हो। इस सम्बन्ध में अग्निपुराण में उल्लेख है -
सर्वकर्मेदमायत्तं विधाने दैव पौरुषे।
तयोर्देवमचिन्त्यं हि पौरुषे विद्यते क्रिया। 12
अर्थात् यह सम्पूर्ण कर्म दैव और पुरुषार्थ के अधीन है। इसमें दैव तो अचिन्त्य है, किन्तु पुरुषार्थ में कर्म का स्थान है जिससे वह मनुष्य परम उन्नति को प्राप्त कर सकता है।
Keywords .
Field Arts
Published In Volume 5, Issue 4, July-August 2023
Published On 2023-07-06
Cite This मानव जीवन में पुरुषार्थ चतुष्ट्य और धर्म - अन्नपूर्णानन्द शर्मा - IJFMR Volume 5, Issue 4, July-August 2023.

Share this