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E-ISSN: 2582-2160     Impact Factor: 9.24

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भारतीय समाज में तुलसी के साहित्य का नारी चेतना में योगदान एक अध्ययन

Author(s) Dr. Mohan Lal Tunduck
Country India
Abstract तुलसी ईश्वरोन्मुख व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, जड़ हो या चेतन, भगवान का अत्यधिक प्रिय मानते हैं। ‘राम भगति रत नर अरू नारी, सकल परम गति के अधिकारी’ कहकर तुलसी ने भक्त रूप में नारी को मोक्ष की अधिकारिणी माना है। चाहे वह अहिल्या द्वारा राम की चरणधूलि प्राप्त् करने से मुक्ति का प्रसंग हो या रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी का विलाप- जो विलाप न होकर भगवान के प्रति स्तुति गान ही अधिक है ‘मैं तुलसी राम-रत स्त्री की छवि को ऊँचा आदर्श होता है’ तुलसी की नारी संबंधी भावना उनके दार्शनिक मतवाद पर आधारित थी। उन्होंने शंकराचार्य के समान माया का केवल विधारूप ही नहीं देखा था वरन् उसका दूसरा पक्ष जो जगत को उत्पन्न करने वाली आदिशक्ति स्वरूप प्रभु की महामाया है, भी देखा था। वे महान लोक साधक थे, उनका विश्वास था कि वही कीर्ति, वही कविता और और वही कविता और वही सम्पदा उत्तम है, जो गंगा की भाँति सबका समान हित करने वाली है। ठीक उसी प्रकार उन्हें नारी का वह स्वरूप वांछनीय है, जो प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों पर आधारित नारी के श्रेष्ठतम धर्म पतिव्रत से संयुक्त हृदय की महानतम विभूतियाँ त्याग, सेवा, ममता, कर्तव्यारूढ़ता, पति प्रेम परायणता और नारियोचित संपूर्ण शील एवं मर्यादा से आवेष्टित तथा जगत कल्याण की सुषमा से परिपूर्ण हो।

राम की भक्ति से सम्पन्न नारी का सत् रूप:-
मानवीय चरित्र के दो रूप स्पष्टतः ही दृष्टिगोचर होते हैं- एक वे जो लोक केवल अपने निजी हित एवं स्वार्थ साधना में निरत यथार्थ की संकुचित सीमाओं में आबद्ध असत् रूप हैं। तुलसीदास के साहित्य में मानवीय चरित् की इन दोनों रूपों की अभिव्यक्ति हुई है। स्त्री पात्रों में सीता, पार्वती और कौशल्या सत् कोटि की पात्र हैं जबकि सूर्पनखा और मंथरा की गणना असत् पात्रों में की जाती हैं। इसके साथ ही कुछ पात्र परिस्थितियों के साथ व्यवहार करते हैं कैकेयी ऐसा ही चरित्र है। वह वास्तव में सत् पात्र ही है। उसके चरित्र की ईर्ष्या, द्वेष, डाह, क्रोध, निष्ठुरता और स्वार्थपरता की भावनाओं की अभिव्यक्ति परिस्थितियों की आकस्मिकता के कारण उद्भूत हुई है। वास्तव में राम जब यह कहते हैं-
‘पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोई।
सर्वभाव भज कपट तजि मोहि पर प्रिय सोई।।’(1)
तब यह साबित हो जाता है कि तुलसी की दृष्टि में भक्ति के क्षेत्र में नारी भी सदा स्तुत्य, मंगलमय और कल्याणकारी है।

असत् के मिथ्या आवरण से आच्छादित नारी का सत् रूप:-
भरत की माता कैकेयी ऐसी ही नारी का रूप है। वस्तुतः नारी जननी पद की एकमात्र अधिकारिणी होने के नाते स्वभावतः ही दयामयी, क्षमामयी और त्यागमयी होती है। परंतु कई बार पारिवारिक, सामाजिक और नैतिक परिस्थितियाँ तथा तुलसी के विचार में भाग्य की विडंबना के कारण उसमें जड़ता, कुटिलता, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और कलह आदि भावनाएँ उभर आती हैं।

नारी के असत् रूप:-
तुलसी की नारी के असत् रूवरूप राक्षसी वृति से युक्त निम्नतम भावनाओं की अति है। इस तरह की नारी में स्वार्थ, दंभ, अविवेक निर्दयता, विध्वंसक महत्वाकांक्षा, घोर वासना और प्रतिहिंसा की ही अभिव्यक्ति है। तुलसी साहित्य में नारी का यह रूप राक्षसराज रावण की भगिनी सूर्पनखा में पूर्णतया परिलक्षित हुआ है। इस रूप में नारी दुष्ट हृदया और भयंकर सर्पिणी के समान है जो अति निर्लज्जता, उच्छृंखलता, कामोन्मत्तता की प्रतीक, धर्मज्ञानशून्य, रूपगर्विता एवं कुलटा के रूप में अंकित की गई है।
‘मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी।
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सेा नारी जो सेव न तेही।।’(2)
तुलसी की आलोचकों द्वारा की गई निंदा इन्हीं असत् स्त्री के संदर्भ में की गई उक्तियों से है। सूर्पनखा जैसी पात्र जिसमें भोग लिप्सा, उच्छृंखलता और हिंसा प्रदर्शित है का दंड तुलसी की दृष्टि में उसका नाक काटकर अपमानित करना ही बन पड़ा है। इसी प्रकार मंथरा की ईर्ष्या के कारण एक परिवार का बिखरना तुलसी को सह्य नहीं है। नारी का यही असत् रूप सर्वत्र ही तुलसी द्वारा निंदनीय एवं भर्त्सनीय रहा है।
Keywords पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोई। सर्वभाव भज कपट तजि मोहि पर प्रिय सोई।।
Field Arts
Published In Volume 6, Issue 2, March-April 2024
Published On 2024-03-09
Cite This भारतीय समाज में तुलसी के साहित्य का नारी चेतना में योगदान एक अध्ययन - Dr. Mohan Lal Tunduck - IJFMR Volume 6, Issue 2, March-April 2024.

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