
International Journal For Multidisciplinary Research
E-ISSN: 2582-2160
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Volume 7 Issue 3
May-June 2025
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छठी शताब्दी ईसा पूर्व में धर्म का लोकतांत्रिकरण: यज्ञ और पुरोहितवाद के विकल्प
Author(s) | Dr. Mithun Kumar |
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Country | India |
Abstract | छठी शताब्दी ईसा पूर्व भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण युग था, जब धार्मिक और दार्शनिक चेतना में व्यापक परिवर्तन देखा गया। वैदिक काल की धार्मिक परंपराएँ इस समय तक अत्यंत जटिल और विशिष्ट वर्गों तक सीमित हो चुकी थीं। यज्ञों की बढ़ती संख्या, उनका विस्तार, और उन्हें संपन्न करने की विधियाँ इतनी कठिन हो गई थीं कि आम जनमानस के लिए धर्म के इन रूपों में भागीदारी लगभग असंभव हो गई थी। ब्राह्मणों के नेतृत्व में पुरोहितवाद की एक ऐसी व्यवस्था विकसित हुई थी, जिसमें धर्म केवल कर्मकांडों तक सीमित होकर ब्राह्मणों की एकाधिकारवादी भूमिका को स्थापित करता था। समाज के निम्न वर्ग—विशेषतः शूद्र, स्त्रियाँ और निर्धन जन—इन धार्मिक क्रियाकलापों से लगभग पूरी तरह से बहिष्कृत थे। इस प्रकार धर्म, जो कि मूलतः आत्मा की मुक्ति और सामाजिक समरसता का मार्ग होना चाहिए था, एक विशिष्ट वर्ग के हितों का उपकरण बन गया था।इन्हीं परिस्थितियों में एक सशक्त प्रतिक्रियात्मक आंदोलन का जन्म हुआ, जिसे हम श्रमण परंपरा के उत्थान के रूप में देख सकते हैं। बौद्ध, जैन, आजीवक और अन्य समकालीन दर्शनों ने उस समय प्रचलित वैदिक यज्ञ-प्रधान धर्म की आलोचना की और जीवन की नैतिकता, ध्यान, संयम और आत्मानुशासन को धार्मिक साधना का केंद्र बनाया। गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में इस बात पर बल दिया कि मोक्ष या निर्वाण किसी विशेष जाति, वर्ग या लिंग का अधिकार नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध है जो आत्मशुद्धि और सच्चे आचरण का मार्ग अपनाता है। यह विचार धर्म के लोकतांत्रिकरण का आधार बना, क्योंकि इससे समाज के उन वर्गों को भी धार्मिक पहचान और गरिमा मिली जो अब तक धार्मिक दृष्टि से हाशिए पर थे। धर्म के इस लोकतांत्रिक स्वरूप में कर्मकांड की जटिलता को त्यागकर लोकभाषा में उपदेश देना एक बड़ा कदम था। बुद्ध ने पालि भाषा का प्रयोग किया और महावीर ने प्राकृत में अपने विचार व्यक्त किए, जिससे शिक्षाएं जनसामान्य तक सरलता से पहुँच सकीं। यह भाषा का चयन प्रतीक था कि धर्म अब केवल पांडित्य का विषय नहीं रहा, बल्कि वह जनता के बीच जीवंत संवाद का माध्यम बन गया। बौद्ध संघों और जैन संघों की संरचना भी लोकतांत्रिक थी, जहाँ भिक्षु समुदाय सामूहिक निर्णयों के आधार पर कार्य करते थे। विहार, आश्रम, चैत्य और स्तूप जैसे संस्थान सभी के लिए खुले थे और धार्मिक ज्ञान को अर्जित करने के लिए किसी जातिगत शर्त की आवश्यकता नहीं थी। इस काल में धर्म केवल आध्यात्मिक साधना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने सामाजिक क्रांति का रूप भी ग्रहण किया। वर्ण व्यवस्था की कठोरता को चुनौती मिली, स्त्रियों को संघों में स्थान मिला, और जनसाधारण को यह आत्मबल मिला कि वह भी धर्म के पथ पर अग्रसर हो सकता है। पुरोहितवादी एकाधिकार, यज्ञों की वैभवपूर्ण परंपरा और आर्थिक दोहन के विरुद्ध यह आंदोलन धर्म को उसके मूल स्वरूप में—समानता, करुणा और विवेक—में पुनः स्थापित करने की कोशिश थी।इस प्रकार छठी शताब्दी ईसा पूर्व का धार्मिक आंदोलन न केवल वैदिक धर्म की आलोचना और उससे मुक्ति का प्रयास था, बल्कि यह धर्म के लोकतांत्रिकरण की एक ऐतिहासिक प्रक्रिया भी थी। इसने भारतीय धर्म-दर्शन को एक ऐसी दिशा दी, जो भविष्य में भी धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समता और नैतिकता के मूल्यों के रूप में जीवित रही। यह काल दर्शाता है कि कैसे विचार और विवेक के बल पर धर्म को पुनः जनकेंद्रित और समावेशी बनाया जा सकता है। आज भी जब हम धर्म की प्रासंगिकता और उसकी सामाजिक भूमिका की बात करते हैं, तो छठी शताब्दी ईसा पूर्व के इस लोकतांत्रिक धर्म-आंदोलन को एक आदर्श उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। |
Keywords | धार्मिक नवचेतना, पुरोहितवाद, श्रमण परंपरा, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सांख्य, वैशेषिक, नास्तिक दर्शन |
Field | Sociology > Archaeology / History |
Published In | Volume 7, Issue 3, May-June 2025 |
Published On | 2025-05-27 |
DOI | https://doi.org/10.36948/ijfmr.2025.v07i03.45452 |
Short DOI | https://doi.org/g9mh9d |
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